नई दिल्ली ; मनोज वर्मा ( वरिष्ठ पत्रकार) पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को आर्थिक सुधारीकरण के लिए याद किया जाता है। उन्होंने तमाम विरोध के बीच भारत की अर्थ व्यवस्था को एक दिशा देना काम किया।वित्त मंत्री के रूप में मनमोहन सिंह की नियुक्ति से भारत की अर्थव्यवस्था की दिशा ही बदल गई. भारत एक कम-विकास वाली अर्थव्यवस्था से आज दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्था में शुमार हो गया. मनमोहन सिंह नरसिम्हा राव के साथ साल 1991 के सुधारों के वास्तुकार थे. उन्होंने कांग्रेस के भीतर और बाहर कई तीखे हमले झेले. क्यों कि अर्थव्यवस्था चरमराई हुई थी. विदेशी मुद्रा भंडार घटकर 2,500 करोड़ रुपये रह गया था, जो मुश्किल से 2 हफ्ते के आयात को कवर करने के लिए ही था. वैश्विक बैंक लोन देने से इनकार कर रहे थे और मुद्रास्फीति बढ़ रही थी. लेकिन मनमोहन सिंह की रणनीति से अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटने लगी. मनमोहन सिंह के हवाले से उनकी बेटी दमन सिंह की किताब ‘स्ट्रिक्टली पर्सनल, मनमोहन एंड गुरशरण’ में 21 जून 1991 के उस दिन का जिक्र है जब मन मोहन सिंह अपने यूजीसी ऑफिस में बैठे थे. उनसे घर जाने और तैयार होकर शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने के लिए कहा गया. किताब में पूर्व पीएम के हवाले से कहा गया है कि पद की शपथ लेने के लिए लाइन में खड़ी नई टीम के सदस्य के रूप में उनको देखकर हर कोई हैरान था. हालांकि उनका पोर्टफोलियो बाद में आवंटित किया गया था. लेकिन नरसिम्हा राव ने उनको तभी बता दिया था कि वह वित्त मंत्री बनने जा रहे हैं. भारत में आर्थिक सुधारों का श्रेय उन्हें ही जाता है. फिर चाहे उनका 2004 से 2014 का प्रधानमंत्री का कार्यकाल रहा हो या फिर इससे पूर्व वित्त मंत्री के रूप में उनका कामकाज.मनमोहन सिंह साल 1991 में भारत के वित्त मंत्री के तौर पर उभरे, ये ऐसा दौर था जब देश के आर्थिक हालात बहुत ख़राब थे.उनकी अप्रत्याशित नियुक्ति ने उनके लंबे और सफल करियर को नई ऊंचाई दी. उन्होंने एक शिक्षाविद और नौकरशाह के रूप में तो काम किया ही, सरकार के आर्थिक सलाहकार के रूप में भी योगदान किया और भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर भी रहे.वित्त मंत्री के रूप में अपने पहले भाषण में उन्होंने विक्टर ह्यूगो का हवाला देते हुए कहा, “इस दुनिया में कोई ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती जिसका समय आ गया है.”ये भाषण उनके महत्वाकांक्षी और अभूतपूर्व आर्थिक सुधार कार्यक्रम की शुरुआत थी. उन्होंने टैक्स में कटौती की, रुपये का अवमूल्यन किया, सरकारी कंपनियों का निजीकरण किया और विदेशी निवेश को बढ़ावा दिया.इससे अर्थव्यवस्था में सुधार हुआ, उद्योग तेजी से बढे़, बढ़ रही महंगाई पर काबू पाया गया और 1990 के दशक में विकास दर लगातार ऊंची बनी रही.
मनमोहन सिंह: उदारीकरण के नायक से लेकर प्रधानमंत्री तक का सफर
मनमोहन सिंह का जन्म 26 सितंबर 1932 को अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत में हुआ था. यह हिस्सा अब पाकिस्तान में है. पंजाब यूनिवर्सिटी से पढ़ाई करने के बाद उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से मास्टर्स किया और ऑक्सफॉर्ड से डी फिल किया.मनमोहन सिंह की बेटी दमन सिंह ने अपनी किताब में लिखा है कि कैंब्रिज में पढ़ाई के दौरान उन्हें आर्थिक तंगी से गुज़रना पड़ा था. दमन सिंह ने लिखा था, ”उनकी ट्यूशन और रहने का खर्च सालाना लगभग 600 पाउंड था. पंजाब यूनिवर्सिटी की स्कॉलरशिप से उन्हें करीब 160 पाउंड मिलते थे, बाकी के लिए उन्हें अपने पिता पर निर्भर रहना पड़ता था. मनमोहन बेहद सादगी और किफायत से जीवन बिताते थे. डाइनिंग हॉल में सब्सिडी वाला भोजन अपेक्षाकृत सस्ता था, जिसकी कीमत दो शिलिंग छह पेंस थी.”दमन सिंह ने अपने पिता को “घर के कामों में पूरी तरह असहाय” बताते हुए कहा कि “वो न तो अंडा उबाल सकते थे और न ही टीवी चालू कर सकते थे.”
मनमोहन सिंह को बहुत अच्छी तरह से पता था कि उनका राजनीतिक जनाधार नहीं है.उन्होंने कहा था, ”राजनेता बनना अच्छी बात है. लेकिन लोकतंत्र में राजनेता बनने के लिए आपको पहले चुनाव जीतना पड़ता है.”लेकिन जब उन्होंने 1999 में लोकसभा का चुनाव जीतने की कोशिश की तो निराशा हाथ लगी. हालांकि कांग्रेस ने उन्हें राज्यसभा में भेजा.2004 में भी ऐसा ही हुआ. तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने से इनकार करने पर मनमोहन सिंह पीएम बने.तब सोनिया गांधी पर उनके विदेशी मूल को लेकर सवाल उठाए गए थे.हालांकि आलोचकों का कहना था कि भले ही मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बनाए गए हों, लेकिन असली ताकत तो सोनिया गांधी के पास है.
मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी कामयाबी प्रधानमंत्री के तौर पर अपने पहले कार्यकाल में अमेरिका के साथ परमाणु समझौता था.उनके समय में ये ऐतिहासिक समझौता हुआ और इसकी बदौलत अमेरिका की परमाणु टेक्नोलॉजी तक भारत की पहुंच बन गई.लेकिन इस सौदे की कीमत भी चुकानी पड़ी. मनमोहन सिंह सरकार को समर्थन दे रहे वामपंथी दलों ने समर्थन वापस ले लिया.कांग्रेस को बहुमत जुटाने के लिए मशक्कत करनी पड़ी. उसे दूसरी पार्टियों से समर्थन लेना पड़ा और इस दौरान कांग्रेस पर आरोप लगा कि उसने सांसदों का समर्थन खरीदने के लिए पैसे खर्च किए.मनमोहन सिंह आम सहमति कायम करने के पक्षधर थे. उन्होंने उस दौरान गठबंधन सरकार का जिम्मा संभाला जब सहयोगी दलों को मनाना मुश्किल काम होता था. वो मुखर थे. मनमोहन सरकार को समर्थन देने वाली क्षेत्रीय पार्टियां भी अपनी मांग बढ़-चढ़ कर रखती थीं. दूसरी समर्थक पार्टियां भी इसमें पीछे नहीं थीं.हालांकि मनमोहन सिंह को उनकी विश्वसनीयता और बुद्धिमत्ता की वजह से भरपूर सम्मान मिला.उन्हें नरम व्यक्तित्व का माना जाता था और कहा जाता था कि वो निर्णय लेने में सक्षम नहीं हैं. कुछ आलोचकों का कहना था कि उनके कार्यकाल में आर्थिक सुधारों की गति धीमी हो गई. वित्त मंत्री के तौर पर उन्होंने जिन आर्थिक सुधारों की गति दी थी उन्हें प्रधानमंत्री रहते आगे नहीं बढ़ा पाए.मनमोहन सिंह ने दूसरी बार साल 2009 में कांग्रेस को निर्णायक चुनावी जीत दिलाई.लेकिन जीत की चमक जल्द ही फीकी पड़ने लगी, और उनका दूसरा कार्यकाल ज्यादातर गलत कारणों से खबरों में रहा- उनके मंत्रिमंडल के कई मंत्रियों पर घोटाले के आरोप लगे, जिनसे देश को कथित तौर पर अरबों डॉलर का नुकसान हुआ. विपक्ष ने संसद को लगातार ठप रखा, और नीतिगत ठहराव के चलते देश को गंभीर आर्थिक मंदी का सामना करना पड़ा.
सादगी से जीने वाले नेता
एक मेहनती पूर्व शिक्षक और नौकरशाह के रूप में, वो अपनी विनम्रता और शांत स्वभाव के लिए जाने जाते थे. उनका ट्विटर अकाउंट (एक्स) साधारण और नीरस पोस्ट्स के लिए जाना जाता था, जिसके फॉलोअर्स की संख्या भी काफी कम थी.मनमोहन सिंह मितभाषी थे. वो हमेशा शांत नज़र आते थे. उनके व्यक्तित्व के इन पहलुओं की वजह से उनके कई प्रशंसक थे.कोयला खदानों के अवैध आवंटन से जुड़े अरबों डॉलर के घोटाले के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने इस मामले पर अपनी चुप्पी का बचाव करते हुए कहा था कि उनकी ”ये चुप्पी हजारों शब्दों के जवाब से बेहतर है.”2015 में उन्हें आपराधिक साजिश, भरोसा तोड़ने और भ्रष्टाचार से जुड़े अपराधों के आरोपों पर जवाब देने के लिए कोर्ट में बुलाया गया. इस दौरान परेशान मनमोहन सिंह ने संवाददाताओं कहा था, वो ”जांच के लिए पूरी तरह से तैयार” हैं. सच की जीत होगी.”प्रधानमंत्री का अपना कार्यकाल ख़त्म करने के बाद बढ़ती उम्र के बावजूद वह कांग्रेस के वरिष्ठ नेता के तौर पर विपक्ष की राजनीति में सक्रिय रहे.अगस्त 2020 में उन्होंने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में कहा था कि कोविड महामारी से अर्थव्यवस्था को पहुंचे नुक़सान की भरपाई के लिए भारत को तीन कदम तुरंत उठाने चाहिए. इस महामारी ने भारत की अर्थव्यवस्था को झकझोर कर रख दिया था.उन्होंने कहा था कि सरकार को लोगों को कैश देना चाहिए. साथ ही कारोबारियों को पूंजी मुहैया करानी चाहिए और वित्तीय सेक्टर की दिक्कतों को दूर करना चाहिए. और आख़िर में इतिहास में मनमोहन सिंह को इस शख़्स के तौर पर याद किया जाएगा जिन्होंने भारत को आर्थिक और परमाणु अलगाव से बाहर निकाला. हालांकि कुछ इतिहासकार कहेंगे कि उन्हें काफी पहले रिटायर हो जाना चाहिए था.2014 में एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ”मेरा पूरा विश्वास है कि मौजूदा मीडिया और संसद में मौजूद विपक्षी पार्टियों की तुलना में इतिहास मेरे प्रति ज्यादा दयालु होगा.”
मनमोहन सिंह के परिवार में उनकी पत्नी और तीन बेटियां हैं.डॉ. मनमोहन सिंह का जन्म अविभाजित भारत में, वर्तमान पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के चकवाल जिले के गाह गांव में हुआ था। विभाजन के बाद 1947 में उनका परिवार अमृतसर में आकर बस गया था। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से 1952 में स्नातक और 1954 में मास्टर्स की डिग्री हासिल की थी।आगे की पढ़ाई के लिए वह यूनाईटेड किंगडम चले गए थे, जहां से उन्हंे 1957 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से बीए और 1962 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से डी.फिल की डिग्री मिली। ऑक्सफोर्ड में उनकी डॉक्टरेट थीसिस का शीर्षक था – ‘इंडियाज इक्सपोर्ट परफॉर्मेंस, 1951-1960, इक्सपोर्ट प्रॉस्पेक्ट्स एंड पॉलिसी इंप्लीकेशंस’।डिग्री के बाद डॉ. सिंह को अपने करियर में विदेशों और भारत दोनों जगह, शीर्ष आर्थिक संस्थानों में काम करने का मौका मिला। वह 1957 से 1965 तक पंजाब विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग में पहले सीनियर लेक्चरर, रीडर और उसके बाद प्रोफेसर रहे। उसके बाद उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के दिल्ली स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स में भी पढ़ाया। उन्होंने व्यापार और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (अंकटाड) , भारतीय योजना आयोग और भारतीय रिजर्व बैंक में भी काम किया। वह केेंद्रीय वित्त व्यापार और वित्त मंत्रालय में सलाहकार की भूमिका में भी रहे।
आर्थिक सुधारों की शुरुआत
मनमोहन सिंह को तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने जून 1991 में वित्त मंत्री नियुक्त किया था। उस समय देश की स्थिति नाजुक थी और उसका राजकोषीय घाटा, सकल घरेलू उत्पाद के 8.5 फीसद के करीब था। भुगतान संतुलन घाटा बहुत बड़ा था। देश इस तरह अधिक धन को अपनी सीमाओं से बाहर निकलते हुए देख रहा था। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार सिर्फ एक अरब डॉलर था।भारत ने धन के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से अनुरोध किया, जिसने मांग की कि देश अपने कुख्यात ‘लाइसेंस राज’ को खत्म करे और अपनी अर्थव्यवस्था को खोल दे।सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी में उस समय कई बड़े नेता इस मांग के खिलाफ थे। इसके बावजूद डॉ. सिंह, अपने प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के समर्थन से भारतीय अर्थव्यवस्था की सामाजिक संरचना को तोड़ने और इसे निजीकरण के लिए खोलने में कामयाब रहे।
24 जुलाई, 2021 को उन्होंने आर्थिक सुधारों के तीस बरस पूरे होने पर एक बयान जारी किया था। उन्होंने कहा था कि आर्थिक सुधारों के सकारात्मक प्रभाव को मुड़कर देखने पर उन्हें बहुत खुशी मिलती है, हालांकि कोविड-19 महामारी की वजह से तमाम लोगों के जान गंवाने से वह बहुत दुखी भी हैं। उन्होंन कहा था कि वर्तमान समय बहुत खुश होने और आनंद मनाने का नहीं बल्कि आत्मनिरीक्षण करने और विचार करने का है। उनका मानना था कि आगे की राह 1991 के संकट से भी ज्यादा कठिन होने वाली है। उन्होंने कहा था कि एक देश के रूप में भारत को अपनी प्राथमिकताओं को फिर से तय करनक ेकी जरूरत है, जिससे हर भारतीय के लिए एक स्वस्थ और सम्मानजनक जीवन सुनिश्चित किया जा सके।
प्रधानमंत्री के रूप में
कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशल गठबंधन (यूपीए) ने मनमोहन सिंह को अपना प्रधानमंत्री घोषित किया था। उन्होंने 22 मई 2004 को इस पद की शपथ ली थी।
उनके पहले कार्यकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था में 8-9 फीसद वृद्धि हुई। 2007 में भारत बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में दूसरा सबसे तेजी से वृद्धि करने वाला देश था।
हालांकि प्रधानमंत्री के तौर पर उनका पहला कार्यकाल कई महत्वपूर्ण विधेयकों के पारित होने के लिए जाना जाता है। इसमें संसद ने 2005 में सूचना के अधिकार के अलावा महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून- मनरेगा भी पास किया। मनमोहन सिंह सरकार ने 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की शुरुआत भी की।
उनके दूसरे कार्यकाल के दौरान पारित महत्वपूर्ण कानूनों में भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्वास अधिनियम, 2013 में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार और बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम शामिल थे।