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चुनाव आयोग के खिलाफ आरोप तथ्यहीन या संस्थागत दुर्भावना

नई दिल्ली। भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन की प्रक्रिया नहीं बल्कि लोकतांत्रिक चेतना का उत्सव होते हैं। भारतीय निर्वाचन आयोग इस व्यवस्था की सफलता और विश्वसनीयता के पीछे सबसे बड़ा स्तंभ है। इसलिए यह सवाल उएठा रहा है कि भारत में चुनाव प्रक्रिया पर लोगों का भरोसा डगमगा रहा है या इसके पीछे राजनीति है। सात अगस्त 2025 को लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने चुनाव आयोग से पांच सीधे सवाल पूछे मसलन मतदाता सूची तक पारदर्शी पहुंच क्यों नहीं दी जा रही। मतदान केंद्रों के सीसीटीवी फुटेज क्यों मिटाए जा रहे हैं। फर्जी मतदाताओं की पहचान की कार्रवाई क्यों नहीं हो रही। मतदाताओं को डराने.धमकाने की घटनाओं पर कार्रवाई क्यों नहीं होती और आयोग की निष्पक्षता पर उठे सवालों का स्पष्ट उत्तर क्यों नहीं दिया जाता। राहुल गांधी की प्रेस कॉन्फ़्रेंस के बाद कई लोगों के मन में यह सवाल है राहुल गांधी ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस में वोट चोरी का आरोप लगाते हुए चुनाव आयोग पर सत्तारूढ़ दल भाजपा के साथ सांठगांठ की बात कही थी हालांकि चुनाव आयोग ने राहुल गांधी के आरोपों को सिरे से ख़ारिज किया है। राहुल गांधी इस मुद्दे को सड़क पर भी उठा रहे हैं और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव के साथ वोटर अधिकार यात्रा निकाल रहे हैं वहीं भारतीय जनता पार्टी इसे कांग्रेस समेत विपक्षी दलों की हताशा वाली राजनीति कह रही है। जिस दिन बिहार के सासाराम से वोटर अधिकार यात्रा शुरू हुई थी उसी दिन चुनाव आयोग ने भी प्रेस कॉन्फ़्रेंस की थी लेकिन इस प्रेस कॉन्फ़्रेंस के बाद भी चुनाव आयोग आलोचकों के निशाने पर है। सवाल हैं कि क्या केंद्र सरकार इन आरोपों के बाद किसी तरह बैकफ़ुट पर दिखती है चुनाव आयोग अगर बचाव करे तो क्या उसे हर बार पक्षपात के तौर पर ही देखा जाएगा और चुनाव आयोग राहुल गांधी से शपथ पत्र लेने की मांग पर क्यों अड़ा हुआ है। वोट चोरी के आरोपों से उठते सवाल और निर्वाचन आयोग के जवाब के बीच पक्ष और विपक्ष की राजनीति जारी रही है। बिहार चुनाव से पहले ही एसआईआर क्यों इस सवाल को उठाते हुए विपक्षी दलों ने संसद के मजसून सत्र में जमकर हंगामा और कार्यवाही में व्यवधान किया।

भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत उसकी चुनावी प्रक्रिया है और इस प्रक्रिया का संचालन चुनाव आयोग करता है। यह संवैधानिक संस्था न केवल निष्पक्ष और स्वतंत्र मानी जाती है बल्कि इसे लोकतंत्र का प्रहरी भी कहा जाता है। मतदाता सूचियों की तैयारी से लेकर मतदान और मतगणना तक हर चरण में जनता का विश्वास इसी संस्था पर टिका होता है। लेकिन पिछले कुछ दिनों में कांग्रेस सांसद राहुल गांधी द्वारा लगाए गए गंभीर आरोपों ने इस भरोसे को चुनौती दी है। राहुल गांधी का आरोप है कि महाराष्ट्रए कर्नाटक और अन्य राज्यों में मतदाता सूचियों में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी की गई है। उनके मुताबिकए फर्जी पतेए डुप्लिकेट नाम और संदिग्ध पहचान वाले मतदाता सूची में शामिल किए गए हैं जिससे चुनावी नतीजों को प्रभावित किया जा सके। उन्होंने यहां तक कहा कि कांग्रेस की छह महीने लंबी जांच में एक करोड़ संदिग्ध वोटर के सबूत मिले हैं। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने गत सात अगस्त को मतदाता सूची में खामियों को लेकर एक लंबा प्रेजेंटेशन दिया था इसमें उन्होंने कर्नाटक की बेंगलुरु सेंट्रल लोकसभा के बारे में मतदाता सूची में धांधली और फिर इस धांधली के जरिए बीजेपी उम्मीदवार की जीत का दावा किया थाण् उन्होंने बताया था कि बेंगलुरु सेंट्रल संसदीय सीट के तहत आने वाली महादेवपुरा विधानसभा सीट में एक लाख से ज्यादा फर्जी मतदाता जोड़े गएण् राहुल गांधी ने यह भी दावा किया कि लोकसभा चुनावों के साथ.साथ महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में भी मतदाता सूची में बड़े पैमाने पर धांधली की गई है चुनाव आयोग ने राहुल गांधी के आरोपों को भ्रम फैलाने वाला बताते हुए कहा था कि यदि राहुल गांधी अपने दावे को सही मानते हैं तो उन्हें यह शिकायत एफिडेविट के साथ देनी चाहिए।

चुनाव आयोग ने इन आरोपों को भ्रामक और बेबुनियाद बताया है। आयोग का कहना है कि राहुल गांधी यदि अपने दावों पर कायम हैं तो उन्हें शपथपत्र देकर औपचारिक शिकायत दर्ज करानी चाहिएए अन्यथा उन्हें सार्वजनिक माफी मांगनी चाहिए। आयोग ने यह भी स्पष्ट किया कि आरोपों पर कोई आधिकारिक शिकायत या प्रमाण औपचारिक रूप से उसके पास नहीं पहुंचा है। कानूनी दृष्टि से आयोग का यह रुख मजबूत दिखाई दे सकता हैए संविधान और चुनाव कानून दोनों ही किसी भी शिकायत को औपचारिक प्रक्रिया के तहत दर्ज कराने का प्रावधान रखते हैं। लेकिन लोकतांत्रिक दृष्टि से सवाल यह है कि इतने गंभीर और व्यापक आरोपों को केवल बयानबाजी बनाम खंडन के स्तर पर छोड़ देना क्या उचित हैघ् लोकतंत्र की आत्मा पारदर्शिता और जवाबदेही में बसती है। यदि जनता यह मानने लगे कि मतदाता सूची से छेड़छाड़ संभव हैए तो पूरे चुनावी तंत्र की साख पर असर पड़ेगा। इसी कारण कई लोकतंत्रों में चाहे आरोप सही हों या गलतए स्वतंत्रए न्यायिक और पारदर्शी जांच को प्राथमिकता दी जाती है। इससे न केवल आरोपों की सच्चाई सामने आती हैए बल्कि जनता का विश्वास भी बरकरार रहता है। यह भी याद रखना होगा कि चुनाव आयोग की साख केवल उसके संवैधानिक अधिकारों से नहींए बल्कि उसकी निष्पक्षता की सार्वजनिक धारणा से बनती है। एक स्वतंत्र जांच में आयोग का सहयोग उसकी छवि को कमजोर नहीं करेगाए बल्कि और मजबूत करेगा। अगर जांच में आरोप गलत साबित होते हैंए तो यह विपक्ष के आरोपों को निराधार सिद्ध कर आयोग की स्थिति को और सुदृढ़ करेगा। और यदि आरोप सही पाए जाते हैंए तो यह लोकतांत्रिक सुधार का अवसर बनेगा जिससे भविष्य में चुनावी प्रक्रिया और सुरक्षित होगी। राजनीतिक दृष्टि से यह मामला केवल कांग्रेस बनाम भाजपा का नहीं है।

वैसे 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पर सवाल उठे थे 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने आरोप लगाया था कि चुनाव आयोग मॉडल कोड ऑफ़ कंडक्ट को सही से लागू नहीं कर रहा है। साल 2009 के चुनाव परिणामों में कांग्रेस की जीत के बादए वरिष्ठ बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए थे। 2010 में बीजेपी नेता जीवीएल नरसिम्हा राव ने ईवीएम पर डेमोक्रेसी एट रिस्क! कैन वी ट्रस्ट अवर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन्स शीर्षक से किताब लिखी थी इसकी प्रस्तावना लालकृष्ण आडवाणी ने लिखी थी। कुल मिलाकर ऐसा पहली बार नहीं है जब चुनाव आयोग सवालों के घेरे में है लेकिन इस बार क्या अलग है। चुनाव आयोग ने आरोपों और शंकाओं को दूर करने का प्रयास किया लेकिन कई सवाल अब भी अनसुलझे दिखाई पड़ते हैं। मसलन. सीसीटीवी फ़ुटेज से जुड़ा सवालए जिस पर ज्ञानेश कुमार ने कहा था कि क्या माताओंए बेटियों और बहुओं की सीसीटीवी फ़ुटेज साझा करनी चाहिए।

मतदाता सूची और चुनाव प्रक्रिया पर किसी भी प्रकार का संदेह चाहे वह किसी भी पार्टी के खिलाफ हो पूरे लोकतांत्रिक ढांचे को कमजोर करता है। एक स्वतंत्र जांच न केवल राजनीतिक विवाद को शांत कर सकती हैए बल्कि देश के चुनावी ढांचे को भी पारदर्शिता और साख को नई ऊंचाई दे सकती है। इस संदर्भ मेंए चुनाव आयोग के लिए यह अवसर है कि वह अपने ऊपर लगे सभी संदेह दूर करे। वह न्यायपालिका की देखरेख में एक उच्चस्तरीय जांच समिति गठित करने की पहल कर सकता हैए जिसमें तकनीकी विशेषज्ञए पूर्व चुनाव आयुक्त और नागरिक समाज के प्रतिनिधि शामिल हों। इससे जनता को यह संदेश जाएगा कि आयोग किसी भी आरोप से डरता नहीं बल्कि अपनी निष्पक्षता सिद्ध करने के लिए तत्पर है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में संस्थाओं की मजबूती केवल उनके अधिकारों से नहींए बल्कि उनके आचरण से तय होती है। मतदाता का विश्वास हर चुनाव की बुनियाद है। जब यह विश्वास डगमगाने लगेए तो सबसे बड़ी जिम्मेदारी उसी संस्था की होती है जो उस विश्वास की संरक्षक है। आज जब देश में राजनीतिक ध्रुवीकरण अपनी चरम सीमा पर है चुनाव आयोग पर लगे आरोप किसी एक दल के लिए नहींए बल्कि पूरे लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय हैं। इन आरोपों पर स्वतंत्र और पारदर्शी जांच का रास्ता अपनाना ही न केवल सबसे उचित बल्कि सबसे जिम्मेदाराना कदम होगा। यही कदम जनता को यह भरोसा देगा कि उनका वोट वास्तव में उनकी ताकत है और वह ताकत सुरक्षित है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 324 निर्वाचन आयोग को स्वतंत्र और स्वायत्त संस्था के रूप में स्थापित करता है जिसे संसद राष्ट्रपति विधानसभा और सभी निर्वाचित निकायों के चुनाव निष्पक्ष और स्वतंत्र रूप से संपन्न कराने का दायित्व दिया गया है। यह संस्था न तो कार्यपालिका के अधीन है और न ही किसी राजनीतिक दबाव में काम करती है। मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है और उनका कार्यकाल एवं सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए विशेष संवैधानिक प्रावधान मौजूद हैं। भारतीय निर्वाचन आयोग केवल एक प्रशासनिक निकाय नहीं बल्कि विवाद.निराकरण और मतदाता.विश्वास निर्माण की भी जिम्मेदारी निभाता है। आयोग मतदान प्रक्रिया को विश्वसनीय बनाने के लिए कई स्तर पर काम करता है। जाहिर है कि मतदान की निष्पक्षता में ही लोकतंत्र की बुनियाद है। लोकतंत्र में मतदान का अधिकार जितना मूल्यवान हैए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग की विश्वसनीयता भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। आयोग को न केवल निष्पक्ष होना होगाए बल्कि निष्पक्ष दिखना भी होगा।

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