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कश्मीर: मुफ़्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद का अपहरण अलगाववाद की कहानी का टर्निंग प्वाइंट

8 दिसंबर, 1989 को 3 बजकर 45 मिनट पर मुफ्ती मोहम्मद सईद की मंझली बेटी रुबैया सईद जैसे ही ललदद्द अस्पताल से बाहर निकलीं, उनकी मिनी बस में पाँच नौजवान सवार हुए. धीरे-धीरे बस के यात्री कम होते चले गए और वो श्रीनगर के बाहरी इलाके नौगाम की तरफ़ बढ़ने लगी जहाँ रुबैया सईद का घर था. अचानक पाँचों नौजवान खड़े हुए और उन्होंने ड्राइवर से बस को नातीपोरा ले जाने के लिए कहा.नातीपोरा में एक नीली मारुति कार उनका इंतज़ार कर रही थी. रुबैया को ज़बरदस्ती उस कार में बैठाया गया और उसे सोपोर में राज्य सरकार के जूनियर इंजीनयर जावेद इकबाल मीर के घर ले जाया गया.

पाँच चरमपंथियों की रिहाई की माँग

जाने-माने पत्रकार मनोज जोशी अपनी किताब ‘द लॉस्ट रेबेलियन, कश्मीर इन द नाइनटीज़’ में लिखते हैं, “रुबैया के साथ जेकेएलएफ़ के नेता यासीन मलिक, अश्फ़ाक माजिद वानी और ग़ुलाम हसन भी गए. कार चलाने वाला शख़्स अली मोहम्मद मीर भी राज्य सरकार की कंपनी स्टेट इंडस्ट्रियल डेवेलपमेंट कॉरपोरेशन में टेक्निकल ऑफ़िसर के पद पर काम कर रहा था. उसी शाम जेकेएलएफ़ के प्रवक्ता ने दैनिक अख़बार ‘कश्मीर टाइम्स’ को फ़ोन करके कहा कि उसके मुजाहिदों ने डॉक्टर रुबैया सईद का अपहरण कर लिया है, क्योंकि वे अपने साथी हामिद शेख़ को रिहा करवाना चाहते हैं. हामिद शेख़ के अलावा उन्होंने अपने चार दूसरे साथियों– शेर ख़ाँ, जावेद अहमद ज़रगर, नूर मोहम्मद कलवल और मौहम्मद अल्ताफ़ बट की भी रिहाई की माँग की.”उस समय मुख्यमंत्री फ़ारुक़ अब्दुल्ला देश में नहीं थे. वो अपना इलाज कराने के लिए इंग्लैंड गए थे. कुछ लोगों का कहना है कि उस समय वो अवसाद में थे लेकिन उनके समर्थकों की दलील थी कि उनकी ईसीजी में कुछ गड़बड़ियाँ पाए जाने के बाद वो इलाज करवाने के लिए रवाना हुए थे.मनोज जोशी लिखते हैं, “इस अपहरण से लोगों को बहुत बड़ा झटका लगा था, लेकिन दूसरी ओर राज्य में मुफ़्ती के प्रतिद्वंदी उनकी इस परेशानी से ख़ुश थे. राज्य के पुलिस प्रमुख को केंद्र सरकार की तरफ़ से निर्देश दिया गया था कि वो कोई ऐसा काम न करें जिससे चरमपंथियों को रुबैया सईद को मारने का बहाना मिल जाए.”दरअसल, जेकेएलएफ़ कई दिनों से इस तरह के हाई-प्रोफ़ाइल अपहरण की योजना बना रहा था.

भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसी रॉ के पूर्व प्रमुख एएस दुलत अपनी किताब ‘कश्मीर, द वाजपेयी इयर्स’ में लिखते हैं, “जेकेएलएफ़ ने सबसे पहले फ़ारुक़ अब्दुल्ला की सबसे बड़ी बेटी सफ़िया अब्दुल्ला को अगवा करने की योजना बनाई थी. लेकिन ऐसा कर पाना इसलिए मुश्किल था क्योंकि उनके निवास गुपकर रोड की सुरक्षा व्यवस्था बहुत मज़बूत थी और दूसरे उन दिनों सफ़िया बहुत बाहर भी नहीं निकलती थीं. इस योजना को छोड़ने के बाद जेकेएलएफ़ ने सीनियर एसपी अल्लाहबख़्श की बेटी का अपहरण करने की योजना बनाई. अल्लाहबख़्श पर 1987 के चुनाव में धाँधली करवाने के आरोप लगे थे. एक जेकेएलएफ़ नेता ने सोचा क्यों न रुबैया सईद को उठा लिया जाए. रुबैया ललदद्द अस्पताल में इनटर्न के तौर पर काम कर रही थीं. वो वहाँ हर दूसरे दिन जाती थीं. पता लगाया गया कि वो कितने बजे वहाँ जाती हैं और कितने बजे वहाँ से वापस आती हैं. इसके बाद उनके अपहरण की साज़िश को अंतिम रूप दिया गया.”सरकार की तरफ़ से गुजरात काडर के आईएएस अधिकारी मूसा रज़ा ने चरमपंथियों से बात शुरू की, रज़ा तब कश्मीर के मुख्य सचिव थे. पर्दे के पीछे उनका साथ दे रहे थे श्रीनगर में तैनात इंटेलिजेंस ब्यूरो के वरिष्ठ अधिकारी एएस दुलत. कश्मीर टाइम्स के एक पत्रकार ज़फ़र मेराज ने इस कांड में शामिल अश्फ़ाक माजिद वानी के पिता से उनकी मुलाकात तय करवाई.

दुलत लिखते हैं, “हम एक सरकारी फ़्लैट में मिले और ज़मीन पर बैठे. वो बार-बार ज़ोर देकर कह रहे थे कि किस तरह दिल्ली ने हमेशा कश्मीरियों के साथ नाइंसाफ़ी की है. फिर वो ये बताने लगे कि अपहरण में शामिल लड़के बुरे नहीं हैं. वो उनकी तरफ़ से ये आश्वासन दे सकते हैं कि वो किसी को नुकसान नहीं पहुंचाएँगे और रुबैया उनकी बहन की तरह हैं. अश्फ़ाक के पिता ने हमें बताया कि अपहरण का मुख्य उद्देश्य हामिद शेख़ को रिहा करवाना है.”दुलत लिखते हैं, “आखिर में उन्होंने बहुत नाटकीय अंदाज़ में मेरा हाथ पकड़कर कहा, ये बच्चे बहुत अच्छे बच्चे हैं. अगर दिल्ली कुछ भी न करे तब भी वो रुबैया को कोई नुकसान नहीं पहुंचाएँगे और उन्हें रिहा कर दिया जाएगा. उस समय हमें लगा कि रुबैया को रिहा करवाने के लिए हमें किसी को छोड़ना नहीं पड़ेगा और अगर छोड़ना भी पड़ा तो ज़्यादा से ज़्यादा हामिद शेख़ को रिहा करने भर से काम चल जाएगा.”

इस बीच रुबैया सईद को छुड़ाने की मुहिम में कई और लोग भी शामिल हो गए. उनमें शामिल थे इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज मोती लाल कौल, विधायक मीर मुस्तफ़ा और एमयूएफ़ के संस्थापक और बाद में हुर्रियत के प्रमुख बने मौलवी अब्बास अंसारी.

इस बीच 11 दिसंबर, 1989 की सुबह फ़ारुक़ अब्दुल्ला लंदन से वापस श्रीनगर लौट आए. आते ही उन्होंने अपने मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई. उनके मंत्रियों ने उनसे शिकायत की कि उनको कुछ भी नहीं पता कि अपहरण मामले में क्या हो रहा है. एक मंत्री ने कहा कि सब कुछ इंटेलिजेंस ब्यूरो के दफ़्तर से चल रहा है. मुख्य सचिव हमें रिपोर्ट नहीं करते और इंटेलिजेंस ब्यूरो के दफ़्तर में ही बैठे रहते हैं.

दुलत लिखते हैं, “अब्दुल्ला ने फ़ौरन मूसा को तलब करके कहा कि आप आइंदा चरमपंथियों से बात नहीं करेंगे. जब मूसा ने इसका कारण पूछा तो अब्दुल्ला ने जवाब दिया आपने अपनी बातचीत का विवरण मंत्रिमंडल को क्यों नहीं दिया? मूसा ने जवाब दिया कि मुख्यमंत्री की अनुपस्थिति में कोई मंत्रिमंडल था ही नहीं. उन्हें मालूम नहीं था कि किसको रिपोर्ट करना है. सच ये था कि कि मूसा उस समय दिल्ली में कैबिनेट सचिव टीएन शेषन को रिपोर्ट कर रहे थे.”

चरमपंथियों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे अब्दुल्ला

फ़ारुक़ अब्दुल्ला को इस बात का अंदाज़ा था कि अगर रुबैया सईद की जगह एक भी चरमपंथी को रिहा किया गया तो इसके क्या परिणाम होंगे लेकिन दिल्ली से चरमपंथियों के साथ समझौता करने का बहुत अधिक दबाव था.11 दिसंबर से 13 दिसंबर तक फ़ारुक़ अब्दुल्ला ने वो सब कुछ किया जो केंद्र सरकार चाहती थी, सिवाय उन पाँच चरमपंथियों को रिहा करने के. जब जज मोती लाल कौल फ़ारुक़ के पास मुफ़्ती मोहम्मद सईद का संदेश लेकर गए कि सभी पाँच चरमपंथियों को छोड़ा जाना है, तो उनके सब्र का बाँध टूट गया.नाराज़ फ़ारुक़ ने सवाल पूछा कि एक चरमपंथी को छोड़ने की माँग बढ़कर पाँच कैसे हो गई? अगर मेरी बेटी का भी वो अपहरण कर लें तब भी मैं उनको रिहा नहीं करूँगा.दुलत लिखते हैं, “फ़ारुक़ ने मेरे सामने मुफ़्ती को फ़ोन मिलाकर कहा, देखिए हम अपना पूरा ज़ोर लगा रहे हैं. मैं आपको आश्वासन देता हूँ कि मैं कुछ भी गड़बड़ी नहीं होने दूँगा. मुफ़्ती साहब मैं आपकी बेटी के लिए वो सब कुछ कर रहा हूँ जो मैंने अपनी खुद की बेटी के लिए किया होता.”लेकिन 13 दिसंबर की सुबह प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने फ़ारुक़ को फ़ोन करके पाँच चरमपंथियों को रिहा करने का अनुरोध किया. फ़ारुक़ ने तब भी ऐसा करने में अपनी झिझक दिखाई. कुछ ही घंटों में वीपी सिंह के मंत्रिंमंडल में मंत्री इंद्र कुमार गुजराल और आरिफ़ मोहम्मद ख़ान इंटेलिजेंस ब्यूरो के प्रमुख एमके नारायणन के साथ श्रीनगर पहुंच गए.

दुलत लिखते हैं, “जब मैंने फ़ारुक़ को बताया कि मैं इन लोगों को लेने एयरपोर्ट जा रहा हूँ तो उन्होंने मुझसे कहा कि वो उन्हें सीधे उनके निवास स्थान पर ले आऊँ. ये बैठक दो घंटे तक चली. इस बीच हम लोगों ने तीन प्याली चाय पी डाली. आख़िर में इन दो मंत्रियों ने फ़ारुक़ को कमरे के बाहर ले जाकर कहा कि उन्हें क्या करना है. फ़ारुक़ का जवाब था, अगर आप उन्हें छोड़ देना ही चाहते हैं तो छोड़ दीजिए. लेकिन मैं अपना विरोध दर्ज कराना चाहता हूँ. उन्होंने साफ़-साफ़ कहा कि अगर सरकार धीरज रखे तो रुबैया को बिना किसी हानि के छुड़वाया जा सकता है वो भी बिना किसी चरमपंथी को छोड़े हुए. लेकिन अगर सरकार ने उनकी बात मान ली तो बाँध टूट जाएगा और फिर कश्मीर में चरमपंथ को बढ़ने से कोई नहीं रोक सकेगा.”चरमपंथियों ने मनाया जश्न

उसी दिन दोपहर 3 बजे पाँचों चरमपंथियों को अवामी एक्शन कमेटी के मुख्यालय मीरवाइज़ मंज़िल के पास राजौरी कदल में रिहा कर दिया गया. वहाँ उनके स्वागत में एक बड़ी भीड़ जमा हो गई और उनको एक जुलूस की शक्ल में श्रीनगर की सड़कों पर घुमाया गया.कुछ घंटे बाद शाम सात बजे रुबैया सईद को रिहा कर दिया गया. इससे पहले रिहा किए गए सभी चरमपंथी भूमिगत हो गए. मनोज जोशी लिखते हैं, “जब इन चरमपंथियों की रिहाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले केंद्रीय मंत्री दिल्ली जाने के लिए हवाई-अड्डे जा रहे थे उन्हें रास्ते में इन चरमपंथियों की रिहाई पर खुशी मनाता हुजूम दिखाई दिया. इन मंत्रियों को हवाई-अड्डे छोड़ने जाने वाले अधिकारियों की कारें जब वापस आ रही थीं तो उत्साहित भीड़ ने उन्हें रोककर आंदोलन के लिए उनसे चंदा माँगा.”इस घटना ने चरमपंथी हिंसा के दरवाज़े खोल दिए और अपहरणों की झड़ी-सी लग गई. राज्य की राजधानी श्रीनगर में बहुत कम सरकारी कर्मचारी रह गए और करीब-करीब सभी लोगों ने जम्मू का रुख़ किया. बहुत से कश्मीरियों को लगने लगा कि वो आज़ादी पाने की कगार पर हैं. बहुतों ने अपनी घड़ियाँ पीछे करके पाकिस्तानी समय से मिला लीं.

छह अप्रैल, 1990 को कश्मीर विश्वविद्यालय के उप-कुलपति मुशीरुल हक और उनके निजी सचिव अब्दुल ग़नी और श्रीनगर में हिंदुस्तान मशीन टूल्स के महाप्रबंधक एचएल खेड़ा का अपहरण कर लिया गया. सरकार ने इनके बदले में चरमपंथियों की रिहाई की माँग ठुकरा दी, जिसके बाद इन तीनों की हत्या कर दी गई.अगस्त, 1991 में जब श्रीनगर के दौरे पर आए भारतीय तेल निगम के कार्यकारी निदेशक के. दुरैस्वामी का अपहरण हुआ तो सरकार ने उनकी रिहाई के बदले फिर पाँच चरमपंथियों को छोड़ दिया.

पीएलडी पारिमू ने अपनी किताब ‘कश्मीर एंड शेर ए कश्मीर: ए रिवोल्यूशन डिरेल्ड’ में लिखा, “हिंदू, मुस्लिम और सिखों के प्रभावशाली सदस्यों की चुन-चुन कर हत्या भय का माहौल बनाने और वैचारिक मतभेदों का गला घोटने के लिए की गई. 1989 के बाद से कई लोग जो चरमपंथियों के उद्देश्यों से सहमत नहीं थे और समस्या के शांतिपूर्ण समाधान की तरफ़ लोगों की सोच को मोड़ सकते थे, उनका निशाना बन गए.”दो दशकों तक छिटपुट हिंसक गतिविधियों में लगे जेकेएलएफ़ को पहली बार ये आभास हुआ था कि वो सरकार को घुटनों पर ला सकते हैं. इस तरह रुबैया सईद के अपहरण और पाँच चरमपंथियों की रिहाई को कश्मीर में अलगाववाद के इतिहास में एक टर्निंग प्वाइंट के रूप में देखा जाता है.

रुबैया सईद अपहरण कांड जिसके बाद बेकाबू हो गया था जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद

जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने न्यूज एजेंसी एएनआई को दिए एक इंटरव्यू में कहा है कि 1989 में रुबैया सईद अपहरण कांड के वक्त उनकी रिहाई के लिए 5 आतंकवादियों को छोड़े जाने ने इंडियन एयरलाइंस अपहरण कांड के वक्त एक ‘बेंचमार्क’ स्थापित कर दिया था। एक ‘नजीर’ बन गया था कि अगर रुबैया सईद को छुड़ाने के लिए आतंकी छोड़े जा सकते हैं तो विमान यात्रियों के लिए क्यों नहीं।अब्दुल्ला ने ये भी कहा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह के सामने ‘आतंकवादियों के साथ कोई समझौता नहीं’ का विकल्प था, लेकिन सरकार ने सौदेबाजी का रास्ता चुना। उन्होंने कहा कि एक बार आप ऐसा कर देते हैं तो आपको इसे दोबारा करना होगा। संयोग से रुबैया सईद अपहरण और कंधार विमान अपहरण कांड, दोनों के वक्त उमर अब्दुल्ला के पिता फारूक अब्दुल्ला ही जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे। आखिर क्या था 1989 का रुबैया सईद अपहरण कांड, जिसका उमर अब्दुल्ला ने जिक्र किया? आइए नजर डालते हैं। लेकिन उससे पहले एक नजर उस पर जो अब्दुल्ला ने रुबैया सईद केस का जिक्र करते हुए कहा।उमर अब्दुल्ला ने कहा है कि 1989 में रुबैया सईद के अपहरण ने 1999 में इंडियन एयरलाइन्स के अपहरण के समय एक ‘मानक’ स्थापित कर दिया था। रुबैया के पिता मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद उस समय केंद्र सरकार में गृह मंत्री थे। राज्य में फारूक अब्दुल्ला की अगुआई में सरकार थी। रुबैया सईद की रिहाई के लिए सरकार ने 5 खूंखार आतंकवादियों को छोड़ दिया था। नेशनल कॉन्फ्रेंस (NC) के उपाध्यक्ष ओमर अब्दुल्ला ने ये बात कही है।अब्दुल्ला ने अपने इंटरव्यू में कहा, ‘यह (IC 814 कंधार विमान अपहरण कांड) दूसरी बार था जब मेरे पिता को लोगों को रिहा करने के लिए मजबूर किया गया। उन्होंने (यात्रियों के परिवारों ने) रुबैया सईद मामले को एक मानक के रूप में इस्तेमाल किया। उन्होंने कहा कि जब आप (सरकार) एक गृह मंत्री की बेटी के लिए आतंकवादियों को रिहा कर सकते हैं, तो हमारे परिवार कीमती नहीं हैं? यह कैसा है कि केवल वह (रुबिया) ही देश के लिए कीमती है? तो एक मानक स्थापित किया गया था और उसका पालन करना पड़ा।’

रुबैया सईद केस के बाद घाटी में बेकाबू होने लगा आतंकवाद
रुबैया अपहरण कांड के बाद जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद ने इतना गंभीर रूप ले लिया कि महज एक साल के भीतर हालात बेकाबू हो गए। घाटी में कश्मीरी पंडितों का बड़े पैमाने पर नरसंहार होने लगा। खुलेआम मुनादी करके उन्हें धर्म परिवर्तन करने, भागने या फिर मरने के लिए तैयार होने को कहा जाने लगा। आखिरकार कश्मीरी पंडितों को अपनी जान बचाने के लिए अपने घर-दुकान, खेत-खलिहान, अचल संपत्तियों को छोड़कर भागना पड़ा। जब कश्मीरी पंडित घाटी में अपना घर-बार छोड़कर भाग रहे थे, तब भी रास्ते में कई को आतंकवादियों ने बर्बर तरीके से हत्या कर दी। कश्मीरी पंडित अपने ही मुल्क में शरणार्थी जैसे बन गए। आज भी वे घाटी में अपने-अपने घरों में नहीं लौट सके हैं। कुल मिलाकर अगर ये कहा जाए कि रुबैया सईद केस ने ही घाटी में आतंकवाद के बेहद बीभत्स रूप की बुनियाद रखी तो गलत नहीं होगा।

घर के पास से हुआ था रुबैया सईद का अपहरण
8 दिसंबर 1989 का दिन। खबर आती है कि तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद का जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया है। वही, जेकेएलएफ जिसका सरगना यासीन मलिक है और जो अभी जेल में बंद है। संयोग देखिए, 5 दिन पहले ही मुफ्ती मोहम्मद सईद केंद्र की सरकार में गृह मंत्री बने थे। रुबैया का अपहरण उस वक्त हुआ जब वह श्रीनगर के लाल डेड मेमोरियल वूमेन्स हॉस्पिटल से लौट रही थीं। वह उस समय 23 वर्ष की थीं और हॉस्पिटल में एक मेडिकल इंटर्न के तौर पर काम कर रही थीं। जाड़े के दिनों में दिन जल्दी डूब जाता था। 8 दिसंबर 1989 को शाम होने वाली थी। करीब पौने 4 बज रहे थे। रुबैया जिस मिनी बस से लौट रही थीं, वह नौगाम स्थित उनके घर से महज आधा किलोमीटर दूर रही होगी कि तभी 4 आतंकवादियों ने बंदूक की नोक पर उन्हें जबरन बस से उतार दिया। नीचे एक मारुति कार पहले से ही इंतजार कर रही थी। रुबैया को उस कार में जबरन खींचकर आतंकी फरार हो गए। जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट ने इस अपहरण कांड की जिम्मेदारी ली।

जेकेएलएफ ने रुबैया की रिहाई के बदले आतंकियों के छोड़े जाने की रखी शर्त
केंद्रीय गृह मंत्री की बेटी के अपहरण की खबर के बाद श्रीनगर से लेकर दिल्ली तक हड़कंप मच गया। जेकेएलएफ ने रुबैया सईद की रिहाई के बदले 5 खूंखार आतंकवादियों को छोड़े जाने की शर्त रखी। केंद्र की तत्कालीन वीपी सिंह सरकार ने अपने गृह मंत्री की बेटी को छुड़ाने के लिए आतंकवादियों के साथ बातचीत और सौदेबाजी का रास्ता चुना। जेकेएलएफ ने रुबैया सईद की रिहाई के बदले खूंखार आतंकवादियों- अब्दुल हामिद शेख, गुलाम नबी भट, नूर मोहम्मद कलवाल, मोहम्मद अल्ताफ और जावेद अहमद जरगर को छोड़ने जाने की मांग की।बाद में उसने जरगर की रिहाई की मांग छोड़ दी और उसके बजाय अब्दुल अहद वाजा को छोड़ने की डिमांड रखी। जेकेएलएफ ने जिन आतंकियों की रिहाई की शर्त रखी थी उसमें से एक अब्दुल हामिद शेख का उस वक्त श्रीनगर के शेर-ए-कश्मीर अस्पताल में इलाज चल रहा था, क्योंकि वह घायल था। आखिरकार केंद्र सरकार आतंकियों के आगे झुक गई और रुबैया के बदले 5 खूंखार आतंकवादियों को छोड़ने के लिए तैयार हो गई।

इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज ने आतंकियों से बातचीत में निभाई मध्यस्थ की भूमिका
रुबैया सईद के अपहरण के वक्त जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला इलाज के सिलसिले में लंदन गए थे। खबर मिलने के बाद आनन-फानन में वह लंदन दौरा बीच में छोड़कर श्रीनगर लौट आए। धीरे-धीरे एक-एक दिन बीतते गए। रुबैया सईद आतंकवादियों के कब्जे में ही थीं। अपहरण को 5 दिन हो चुके थे। सरकार और आतंकवादियों के बीच मध्यस्थ के जरिए लगातार बातचीत चलती रही। आखिरकार, सरकार ने आतंकियों के रिहाई का फैसला किया। जेकेएलएफ ने कहा कि उसके साथी आतंकवादी जब छोड़ दिए जाएंगे, उसके कुछ घंटे बाद वे रुबैया सईद को रिहा कर देंगे। तय हुआ कि बातचीत में मध्यस्थ की भूमिका निभाने वाले लोग रिहा किए जाने वाले आतंकवादियों को लेकर जस्टिस एमएल भट के घर पहुंचेंगे। उसके बाद जेकेएलएफ रुबैया को छोड़ेगा। इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस एम एल भट मुफ्ती मोहम्मद सईद के दोस्त थे और वह भी जेकेएलएफ के साथ बातचीत में मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे थे। हुआ भी ऐसा। पांचों खूंखार आतंकवादियों को जस्टिस एमएल भट के घर ले जाया गया जहां से उन्हें जेकेएलएफ को सुपुर्द कर दिया गया। करीब तीन घंटे बाद जेकेएलएफ ने रुबैया सईद को जस्टिस भट के घर पहुंचवा दिया। वहां से उन्हें सीधे दिल्ली लाया गया।

आगे रुबैया सईद जैसे कई केस हुए, सैफुद्दीन सोज की बेटी का भी हुआ था अपहरण
रुबैया सईद अपहरण कांड के करीब दो साल बाद 27 फरवरी 1991 को राज्य के एक और दिग्गज नेता सैफुद्दीन सोज की बेटी नाहिदा इम्तियाज का आतंकियों ने अपहरण कर लिया। इसे भी जम्मू-कश्मीर स्टूडेंट्स लिबरेशन फ्रंट ने ही अंजाम दिया। आतंकियों ने नाहिदा की रिहाई के बदले अपने साथियों को छोड़े जाने की डिमांड रखी। तब केंद्र में चंद्रशेखर की अगुआई वाली सरकार थी। कुछ दिन बाद आतंकियों ने नाहिदा को रिहा कर दिया। उस समय केंद्र में मंत्री रहे सुब्रमण्यम स्वामी ने बाद में अपने एक लेख में बताया था कि नाहिदा की रिहाई के बदले में किसी भी आतंकी को नहीं छोड़ा गया था। हालांकि, कुछ न्यूज रिपोर्ट्स में दावा किया गया है कि सैफुद्दीन सोज की बेटी की रिहाई के बदले में सरकार ने अलगाववादी मुश्ताक अहमद को रिहा किया था। अब उमर अब्दुल्ला ने एक तरह से ये कहने की कोशिश की है कि कंधार विमान अपहरण कांड की बुनियाद तो रुबैया सईद केस में ही पड़ गई थी जब सरकार ने खूंखार आतंकियों को रिहा किया था।

कंधार अपहरण कांड में वाजपेयी सरकार को छोड़ने पड़े थे 3 खूंखार आतंकी
रुबैया अपहरण कांड के करीब 10 साल बाद 24 दिसंबर 1999 को आतंकियों ने इंडियन एयरलाइंस के विमान आईसी-814 को हाईजैक कर लिया था। वह फ्लाइट नेपाल की राजधानी काठमांडू से दिल्ली आ रही थी। आतंकी विमान को अफगानिस्तान के कंधार में उतारे थे। यात्रियों की सुरक्षित रिहाई के लिए केंद्र की तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी ने 3 खूंखार आतंकवादियों को छोड़ा था।

क्या मुफ़्ती मोहम्मद सईद की बेटी का अपहरण कोई राजनीतिक साजिश थी?

किसने किया था ये अपहरण? अपहरणकर्ताओं ने क्या डिमांड की थी? और सरकार ने इसे कैसे हैंडल किया? आइए जानते हैं. #JKLF और कश्मीर की आज़ादी कोई पूछे कि ‘कश्मीर मांगे आज़ादी.’ का नारा किसने लगाया? तो हाल-फ़िलहाल के नामों से बात शुरू होगी और राष्ट्रवाद बनाम अलगाववाद की लंबी चर्चा छिड़ जाएगी. लेकिन जब पहली बार कश्मीर की आज़ादी के नारे लगे थे, तब ऐसे नारे लगाने वालों में सबसे पहला नाम मकबूल भट्ट का था. जो न तो कश्मीर के भारत में विलय पर राजी था और न पकिस्तान में. मकबूल कश्मीर को आज़ाद रखना चाहता था. पेशावर यूनिवर्सिटी से इतिहास और पॉलिटिकल साइंस में मास्टर्स करने के बाद कुछ वक़्त के लिए मकबूल बर्मिघम रहने गया, इसी दौरान उसने एक मिलिटेंट आर्गेनाईजेशन बनाया- नाम रखा JKLF, यानी जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट.1966 में मकबूल जब वापस कश्मीर आया तो यहां उसकी पुलिस से मुठभेड़ हुई. मुठभेड़ में मकबूल का साथी औरंगजेब मारा गया और मकबूल को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. एक क्राइम ब्रांच ऑफिसर अमर चंद भी शहीद हुए. मकबूल पर कोर्ट में मामला चला और फांसी की सज़ा सुनाई गई. लेकिन दो साल बाद मकबूल सुरंग बनाकर जेल से फरार हो गया. साल 1971 में एक भारतीय हवाई जहाज़ F-27 को हाईजैक करके पाकिस्तान ले जाया गया था. इसका भी मास्टरमाइंड मकबूल निकला.

भारत के दबाव पर मकबूल को पाकिस्तान ने गिरफ्तार तो कर लिया, लेकिन मेहमान नवाजी में कोई कमी नहीं थी. दुश्मन का दुश्मन दोस्त. पाकिस्तान ने 1974 में मकबूल को रिहा कर दिया. रिहा होने के बाद मकबूल JKLF का मिशन दिमाग में लिए वापस कश्मीर चला आया. लेकिन यहां एजेंसीज़ पहले से अलर्ट पर थीं, जिसके चलते मकबूल को दोबारा गिरफ्तार कर लिया गया. फांसी की सज़ा मुक़र्रर थी ही, जिस पर मकबूल ने दया याचिका भी डाली, जिसे राष्ट्रपति ने ठुकरा दिया. मकबूल तिहाड़ जेल में बंद था, लेकिन JKLF मकबूल की रिहाई चाहता था. दबाव बनाने के लिए JKLF ने बर्मिघम में भारतीय डिप्लोमेट रवींद्र म्हात्रे का अपहरण कर लिया. लेकिन जब सरकार नहीं झुकी तो 6 फरवरी 1984 को JKLF ने रवीन्द्र म्हात्रे की हत्या कर दी. पानी अब सर से ऊपर जा चुका था. इसके बाद 11 फरवरी को मकबूल को भी फांसी दे दी गई.
मकबूल का किस्सा तो ख़त्म हो गया था, लेकिन JKLF के खेल अभी बाकी थे. नील कंठ गंजू, कश्मीरी पंडित और जज. वही जज जिन्होंने मकबूल को फांसी की सज़ा सुनाई थी. JKLF ने अपने फाउंडर की फांसी का बदला लिया और 4 नवंबर 1989 को नील कंठ गंजू की हत्या कर दी. नील कंठ की लाश घंटों सड़क पर पड़ी रही. इधर कश्मीरी पंडितों के खिलाफ़ कश्मीर की अवाम में अलगाववादियों ने ज़हर घोलना शुरू कर दिया, आम लोग भी अब JKLF के पक्ष में खड़े होने लगे थे. #रुबिया सईद का अपहरण JKLF की हिम्मत बढ़ गई थी, मकबूल भट्ट की जगह अब अशफ़ाक वानी और यासीन मलिक जैसे लोग JKLF को कमांड कर रहे थे. बिट्टा कराटे जैसे अच्छे निशानेबाज़ लड़ाके थे, जो दसियों कश्मीरी पंडितों और कई मुस्लिमों को मौत के घाट उतार चुके थे. मक़बूल भट्ट प्रकरण के बाद JKLF को लगा, कुछ बड़ा करने की ज़रूरत है. मकबूल की रिहाई की कोशिशों से JKLF सरकार से सौदेबाजी करना सीख गया था. भले ही उस वक़्त सफल नहीं हुआ था. लेकिन इस बार 20 आतंकियों (Terrorists) की रिहाई के बदले बतौर होस्टेज थी, रुबिया सईद. विश्वनाथ प्रताप सिंह की सिर्फ 6 दिन पुरानी सरकार में गृहमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद की बेटी.

तारीख थी 8 दिसंबर 1989. यानी आज का ही दिन. वी.पी.सिंह की सरकार को सत्ता संभाले अभी हफ्ता भी नहीं बीता था. दोपहर करीब 3 बजे देश के पहले मुसलमान गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद गृह मंत्रालय में पहली बार अधिकारियों से रूबरू हो रहे थे. ठीक उसी वक्त उनकी बेटी रूबिया सईद अपनी ड्यूटी खत्म होने के बाद ललदद हॉस्पिटल से निकलीं. MBBS का कोर्स पूरा करने के बाद इसी हॉस्पिटल में रुबिया इंटर्नशिप कर रही थीं.
उस रोज़ हॉस्पिटल से निकलकर रुबिया एक ट्रांजिट वैन में सवार होती हैं. वैन का नंबर था- JFK 677. वैन लाल चौक से श्रीनगर के बाहरी इलाके नौगाम की तरफ जा रही थी. रुबिया जैसे ही चानपूरा चौक के पास पहुंची, वैन में सवार तीन लोगों ने गनपॉइंट पर वैन को रोक लिया. और रूबिया सईद को वैन से नीचे उतारकर सड़क के दूसरी तरफ़ खड़ी नीले रंग की मारुति कार में बैठा लिया. उसके बाद मारुति कार कहां गई किसी को नहीं पता.
इस अपहरण का आरोप लगा अशफाक वानी और यासीन मालिक पर. अशफाक JKLF से जुड़ने से पहले एथलीट हुआ करता था, लेकिन बाद में चरमपंथी बन गया था. कहा गया, अशफ़ाक ही गृहमंत्री की बेटी रुबिया की किडनैपिंग का मास्टरमाइंड था. किडनैपिंग से पहले उसने मुफ्ती के घर और अस्पताल की रेकी भी की थी. अपहरण के बाद लोकल लेवल पर किसी ने कोई सूचना नहीं दी. न ही वैन के ड्राइवर ने किसी से कुछ कहा. दो घंटे बाद, करीब 6 बजे JKLF के जावेद मीर ने एक लोकल अखबार को फोन करके जानकारी दी कि हमने भारत के गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रूबिया सईद का अपहरण कर लिया है.

JKLF की 20 आतंकियों की रिहाई की मांग कश्मीर से लेकर दिल्ली तक अफरातफरी मच गई. पब्लिक डोमेन से कहीं ज्यादा सत्ता के गलियारों में. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लॉ एंड ऑर्डर के लिए ज़िम्मेदार आदमी अपनी बेटी की सुरक्षा में नाकाम रहा था. पुलिस से लेकर इंटेलिजेंस यूनिट्स तक बैठकों का दौर शुरू हो गया. अब बारी थी JKLF की तरफ से डिमांड आने की. वही पुराना शगल. JKLF की तरफ से 20 आतंकवादियों के नाम सरकार को भेज दिए गए. गृहमंत्री की बेटी रुबिया को छोड़ने के बदले सभी की रिहाई की मांग की गई. नेगोशियेशन का दौर चला और मांग 20 की जगह 7 आतंकियों पर आकर रुकी. सरकार में अंदरखाने दोनों रास्तों पर बात चल रही थी, चरमपंथियों को रिहा किया जाए या मिलिट्री एक्शन लिया जाए. लेकिन रुबिया सईद की सुरक्षित रिहाई कैसे हो, सारी कवायद का सेंटर पॉइंट यही था. मध्यस्थता के लिए कई चैनल बनाए गए. ऐसे मानिए कि तीन टीमें. एक चैनल थे श्रीनगर के जाने-माने डाक्टर एए गुरु. दूसरा चैनल तीन लोगों का बनाया गया, इसमें थे पत्रकार जफर मिराज, अब्दुल गनी लोन की बेटी शबनम लोन और अब्बास अंसारी. और तीसरे चैनल में थे इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस मोतीलाल भट और एडवोकेट मियां कयूम.
पांच दिन बीत चुके थे. सभी चैनल अपनी-अपनी कोशिशें कर रहे थे. 8 दिसंबर से शुरू हुआ बैठकों का दौर 13 दिसंबर तक पहुंच चुका था. ये सियालकोट में भारत और पाकिस्तान के बीच चौथे और आख़िरी क्रिकेट टैस्ट मैच का चौथा दिन था. तीन टेस्ट यूं भी ड्रा हो चुके थे. और इस मैच में भारत की हालत पतली थी. लेकिन क्रीज़ पर एक तरफ़ नवजोत सिंह सिद्धू और दूसरी तरफ 16 साल का नौजवान बल्लेबाज़ सचिन तेंदुलकर था. दोनों पूरा दिन निकाल ले गए, और मैच को पांचवें दिन तक खींच लिया. दुनिया पहली बार सचिन की जीवटता से रूबरू हो रही थी, लेकिन दूसरी तरफ वीपी सिंह की सरकार का इम्तेहान भी चल रहा था. क्योंकि अब तक रूबिया सईद किडनैप करने वाले आतंकियों के चंगुल में थीं.

13 दिसंबर 1989 की सुबह दिल्ली से फॉरेन मिनिस्टर इंद्र कुमार गुजराल और सिविल एविएशन मिनिस्टर आरिफ मोहम्मद खान को श्रीनगर भेजा गया. एक दिन पहले ही जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूक़ अब्दुल्ला लंदन से श्रीनगर लौटे थे. मुख्यमंत्री अब्दुल्ला की मुलाक़ात दोनों केंद्रीय मंत्रियों से हुई. रूबिया की रिहाई पर बात हुई, फारुक अब्दुल्ला आतंकवादियों को छोड़ने पर राजी नहीं थे. लेकिन आख़िरकार झुकना पड़ा.13 दिसंबर की दोपहर तक सरकार और अपहरणकर्ताओं के बीच समझौता हो गया. समझौते के तहत 5 आतंकवादियों को रिहा किया गया. बदले में कुछ ही घंटे बाद लगभग साढ़े सात बजे रूबिया को सोनवर में जस्टिस मोतीलाल भट्ट के घर सुरक्षित पहुंचा दिया गया. रुबिया करीब 122 घंटे बाद रिहा हुई थीं. 13 दिसंबर की रात करीब 12 बजे विशेष विमान से रूबिया को दिल्ली लाया गया. हवाई अड्डे पर पिता मिले तो भावुक लग रहे थे. आवाज़ भरभराई हुई थी. चेहरे पर तनाव साफ़ था. मुफ्ती मोहम्मद सईद ने कहा कि एक पिता के बतौर मैं खुश हूं, लेकिन एक नेता के तौर पर मैं समझता हूं कि ऐसा नहीं होना चाहिए था. किडनैपिंग नहीं होनी चाहिए थी.

उधर कश्मीर में आम जनता खुशी के उन्माद में थी. ये खुशी देश के गृहमंत्री की बेटी या कश्मीर की बेटी की रिहाई की नहीं, बल्कि रिहा किए गए पांच चरमपंथियों के लिए थी. श्रीनगर की सड़कों पर नारे लग रहे थे-

हम क्या चाहते- आज़ादी!, कश्मीर मांगे- आज़ादी!, और ‘जो करे ख़ुदा का खौफ़, वो उठा ले क्लाश्निकोव!

#छोड़े गए आतंकी इस किडनैपिंग का मास्टरमाइंड अशफाक वानी था. जिसे कुछ ही महीने बाद 31 मार्च 1990 को एनकाउंटर में मार गिराया गया. जो पांच आतंकवादी रिहा किए गए थे उनमें से एक शेख हमीद भी नवंबर, 1992 में सुरक्षा बलों से मुठभेड़ में मार दिया गया. शेर खान, जो पाक अधिकृत कश्मीर का रहने वाला था, 2008 में उसकी संदिग्ध हालात में मौत हो गई. दो और रिहा हुए आतंकी जावेद अहमद जरगर और नूर मोहम्मद कलवल को दूसरे मामलों में 12-12 साल के लिए जेल भेज दिया गया. जबकि एक अल्ताफ बट रिहाई के बाद से कश्मीर में पूरी तरह अपने काम धंधे में लग गया. #किताबी किस्से क्या कहते हैं? गृहमंत्री की बेटी का अपहरण आम बात नहीं थी. इस पर कई किताबें लिखी गईं. जिनमें से दो किताबों का ज़िक्र ज़रूरी मालूम होता है. रुबिया सईद के अपहरण के वक़्त नेशनल सिक्योरिटी गार्ड (NSG) के डायरेक्टर जनरल थे- वेद मारवाह. उन्होंने जो किताब लिखी उसका नाम था Uncivil Wars: The Pathology of Terrorism in India. इस किताब में रुबिया सईद के अपहरण के बाद सरकार की अप्रोच कैसी रही इसपर डिटेल से बताया गया है. वेद मारवाह के मुताबिक़ पूरे मामले पर मुफ्ती मोहम्मद सईद उस वक्त ज्यादा कुछ नहीं बोल रहे थे. प्राइम मिनिस्टर वीपी सिंह ने इस मामले की पूरी जिम्मेदारी वाणिज्य मंत्री अरूण नेहरू को सौंप रखी थी. नेहरू ही पूरे ऑपरेशन को लीड कर रहे थे. वेद मारवाह के मुताबिक सरकार की एप्रोच सही नहीं थी. अपहरणकर्ताओं से बातचीत के एक से ज्यादा चैनल खोल दिए गए थे. और सभी लोग सिर्फ इस कोशिश में लगे थे कि रूबिया सईद की रिहाई उनके चैनल से हो. इसी का फायदा अपहरणकर्ताओं ने उठाया और 5 आतंकवादियों को रिहा करवाने में कामयाब रहे.’दूसरी किताब है, अलगाववादी नेता हिलाल वार की. किताब का नाम है- ‘The Great Disclosures- Secrets Unmasked. हिलाल वार ने अपनी किताब में मुफ्ती मोहम्मद सईद पर आरोप लगाया है कि उन्होंने गृहमंत्री रहते हुए खुद अपनी बेटी रूबिया सईद के अपहरण की साजिश रची और आंतकवादियों को छुड़वाया, जिसके बाद कश्मीर के हालात और बिगड़ गए. हिलाल वार ने अपनी किताब में रुबिया सईद के बदले आतंकियों की रिहाई के बाद के घटनाक्रम का सिलसिलेवार ब्यौरा दिया है. वार के मुताबिक कश्मीर को अस्थिर करने का ब्लूप्रिंट बहुत पहले तैयार किया जा चुका था. लेकिन इसे पूरी तरह अमल में 13 दिसंबर 1989 के बाद लाना शुरू हुआ. 90 के दशक में छिट-पुट वारदातों को छोड़ दिया जाए तो घाटी के हालात ठीक थे. वार के मुताबिक रुबिया सईद की किडनैपिंग महज़ एक ड्रामा था. जिसे सियासी उद्देश्यों कों पूरा करने के लिए रचा गया था. हिलाल कहते हैं कि रुबिया के अपहरण की साजिश कामयाब होने के बाद से ही कश्मीर में आतंकी घटनाएं बढीं.

रुबिया का अपहरण तो शुरुआत थी. सही भी है क्योंकि, इसी घटना के बाद कश्मीर यूनिवर्सिटी के वीसी प्रोफ़ेसर मुशीरुल हक़ और उनके सेक्रेटरी अब्दुल गनी का अपहरण हुआ. आरोप लगा स्टूडेंट लिबरेशन फ्रंट पर. इसके बाद JKLF ने एचएमटी के जनरल मैनेजर एचएल खेड़ा को किडनैप किया. और इंडियन ऑयल कारपोरेशन के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर दुरई स्वामी भी किडनैप कर लिए गए. इसके पीछे हिजबुल मुजाहिदीन का हाथ था. कश्मीर के हालात और बिगड़े और साल 1999 में कंधार हाइजैक कांड हुआ. और साल 2001 में संसद पर हमला.

33 साल बाद कोर्ट में हुआ खुलासा, इन लोगों ने किया था गृहमंत्री की बेटी का अपहरण

देश के पूर्व गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद ने 1989 के अपने अपहरण कांड को लेकर बड़ा खुलासा किया है. उन्होंने अदालत में सुनवाई के दौरान कहा कि मेरा यासीन मलिक ने ही मेरा अपहरण किया था. मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद शुक्रवार को सीबीआई की विशेष अदालत के समक्ष पेश हुईं. इस दौरान उन्होंने जेकेएलएफ प्रमुख यासीन मलिक और तीन अन्य की पहचान अपने अपहरणकर्ताओं के रूप में की. यह पहली बार था, जब रुबैया को मामले में अदालत में पेश होने के लिए कहा गया था. अपहरणकर्ताओं ने रुबैया को पांच आतंकवादियों की रिहाई के बदले आजाद किया था. सीबीआई ने तमिलनाडु में रहने वाली रुबैया को अभियोजन पक्ष के गवाह के रूप में सूचीबद्ध किया है. 1990 के दशक में इस मामले की जांच सीबीआई को सौंपी गई थी. प्रतिबंधित संगठन जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) का प्रमुख यासीन मलिक इस मामले में एक आरोपी है. उसे हाल ही में आतंकवाद के वित्त पोषण से जुड़े एक मामले में उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी. 

जम्मू-कश्मीर में 90 के दशक में आतंकवाद अपने चरम पर था. तब केंद्र में भाजपा और वाम दलों के समर्थन से वीपी सिंह की सरकार चल रही थी. उस सरकार में गृह मंत्री का पद मुफ्ती मोहम्मद सईद संभाल रहे थे. उनकी बेटी का अपहरण कुछ आतंकियों ने कर लिया था. 1989 में केंद्रीय गृहमंत्री की बेटी के अपहरण की खबर पूरे देश के लिए एक बड़ी चुनौती बन गई. गृहमंत्री की बेटी को छुड़ाने के लिए सरकार ने पूरी ताकत झोंक दी. आतंकियों ने अपने 5 साथी जेल से छोड़ने की कठिन शर्त रख दी और अंत तक अपनी मांग पर अड़े रहे. इसके बाद रुबैया को आतंकियों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए सरकार को 5 आंतकवादियों को रिहा करना पड़ा. इस पूरे कांड में जेकेएलएफ का सरगना यासीन मालिक मास्टरमाइंड था जो घाटी में अलगाववाद फैला रहा था. इस घटना के डेढ़ महीने बाद 25 जनवरी 1990 को यासीन मलिक व जेकेएलएफ के अन्य आतंकियों ने श्रीनगर में वायुसेना के जवानों पर अंधाधुंध फायरिंग की थी. इसमें चार की मौत हो गई, जबकि 40 अन्य घायल हो गए थे. पिछले साल जनवरी में सीबीआई ने विशेष सरकारी वकील मोनिका कोहली और एस. के. भट की मदद से मलिक सहित 10 लोगों के खिलाफ रुबैया अपहरण मामले में आरोप तय किए थे जो कश्मीर घाटी के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ. यासीन मलिक के साथियों ने ही उसके शामिल होने की बात कुबूली थी. 

उम्रकैट की सजा काट रहा यासीन मलिक

25 मई को प्रतिबंधित संगठन जेकेएलएफ प्रमुख यासीन मलिक को एनआईए कोर्ट ने 2017 के टेरर फंडिंग मामले में दोहरी उम्रकैद की सजा सुनाई है. देश में कई जगहों पर उसे फांसी की सजा की भी मांग कर रहे थे लेकिन उसे कोर्ट से उम्र कैद की सजा ही मिली. 

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